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45+ Tehzeeb hafi shayari | तहजीब हाफी शायरी

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घर में भी दिल नहीं लग रहा, काम पर भी नहीं जा रहा
जाने क्या ख़ौफ़ है जो तुझे चूम कर भी नहीं जा रहा।

रात के तीन बजने को हैं, यार ये कैसा महबूब है?
जो गले भी नहीं लग रहा और घर भी नहीं जा रहा।




गली से कोई भी गुज़रे तो चौंक उठता हूँ
नये मकान में खिड़की नहीं बनाऊंगा।

फरेब दे कर तेरा जिस्म जीत लूँ लेकिन
मैं पेड़ काट के कश्ती नहीं बनाऊंगा।

तुम्हें पता तो चले बेजबान चीज का दुःख
मैं अब चराग की लौ ही नहीं बनाऊंगा।

मैं दुश्मनों से जंग अगर जीत भी जाऊं
तो उनकी औरतें कैदी नहीं बनाऊंगा।

मैं एक फिल्म बनाऊंगा अपने सरवत पर
उसमें रेल की पटरी नहीं बनाऊंगा।

ज़ेहन से यादों के लश्कर जा चुके
वो मेरी महफ़िल से उठ कर जा चुके
मेरा दिल भी जैसे पाकिस्तान है
सब हुकूमत करके बाहर जा चुके

मैंने जो कुछ भी सोचा हुआ है,
मैं वो वक़्त आने पे कर जाऊँगा
तुम मुझे ज़हर लगते हो और
मैं किसी दिन तुम्हें पी के मर जाऊँगा

कौन तुम्हारे पास से उठ कर घर जाता है
तुम जिसको छू लेती हो वो मर जाता है




रुक गया है वो या चल रहा है
हमको सब कुछ पता चल रहा है
उसने शादी भी की है किसी से
और गाँव में क्या चल रहा है

अब मज़ीद उससे ये रिश्ता नहीं रक्खा जाता
जिससे इक शख़्स का पर्दा नहीं रक्खा जाता
एक तो बस में नहीं तुझसे मोहब्बत ना करूँ
और फिर हाथ भी हल्का नहीं रक्खा जाता




तारीकियों को आग लगे और दिया जले
ये रात बैन करती रहे और दिया जले
उस की ज़बाँ में इतना असर है कि निस्फ़ शब
वो रौशनी की बात करे और दिया जले




तुम्हें हुस्न पर दस्तरस है बहोत, मोहब्बत वोहब्बत बड़ा जानते हो,

तो फिर ये बताओ कि तुम उसकी आंखों के बारे में क्या जानते हो?

ये ज्योग्राफियाँ, फ़लसफ़ा, साइकोलोजी, साइंस, रियाज़ी वगैरह,

ये सब जानना भी अहम है, मगर उसके घर का पता जानते हो?




.’एक आस्तीन चढ़ाने की आदत को छोड़ कर

‘हाफ़ी’ तुम आदमी तो बहुत शानदार हो’




.’एक आस्तीन चढ़ाने की आदत को छोड़ कर

‘हाफ़ी’ तुम आदमी तो बहुत शानदार हो’




इतना मीठा वो गुस्से भरा लहज़ा मत पूछ

उस ने जिस जिस को भी जाने का कहा बैठ गया

अपना लड़ना भी मोहबत है तुम्हे इलम नहीं

चीखती तुम रही और मेरा गला बैठ गया

उस की मर्जी वो जिसे पास बैठा ले अपने

इस पे क्या लड़ना फलां मेरी जगह बैठ गया

बात दरियाओ की सूरज की न तेरी है यहाँ

दो कदम जो भी मेरे साथ चला बैठ गया


तेरा चुप रहना मेरे जेहन में क्या बैठ गया।
इतनी आवाजें तुझे दी, की गला बैठ गया।।
यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ।
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया।।


लड़कियाँ इश्क़ में कितनी पागल होती हैं।
फ़ोन बजा और चूल्हा जलता छोड़ दिया।।
तुम क्या जानो उस दरिया पे क्या गुजरी
तुमने तो बस पानी भरना छोड़ दिया।।


इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ,
उसने जिस जिस को भी जाने का कहा बैठ गया।


तुम चाहते हो कि तुमसे बिछड़ के खुश रहूँ,
यानि हवा भी चलती रहे और दीया जले।


बाद में मुझ से ना कहना घर पलटना ठीक है,
वैसे सुनने में यही आया है रस्ता ठीक है।


एक और शख़्स छोड़कर चला गया तो क्या हुआ,
हमारे साथ कौन सा ये पहली मर्तबा हुआ।


तुझे किस किस जगह पर अपने अंदर से निकालें,
हम इस तस्वीर में भी तूझसे मिल के आ रहे हैं।


उसके चाहने वालों का आज उसकी गली में धरना है,
यहीं पे रुक जाओ तो ठीक है आगे जाके मरना है।


तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया इतनी आवाज़ें तुझे दी कि गला बैठ गया.. यूं नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूं जो भी उस पेड़ की छांव में गया बैठ गया..


रात के तीन बजने को है यार ये कैसा महबूब है? जो गले भी नहीं लग रहा और घर भी नहीं जा रहा..!

तुम्हें पता तो चले बेजुबान चीज का दुख मैं अब चराग की लौ ही नहीं बनाऊंगा.. मैं दुश्मनों से जंग अगर जीत भी जाऊं तो उनकी औरतें कैदी नहीं बनाऊंगा..